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फातिमा शेख और सावित्रीबाई फुले...


भारत की दो महान नारियां-सावित्रीबाई फुले और फातिमा शेख। सावित्रीबाई फुले को देश की प्रथम शिक्षिका होने का गौरव प्राप्त है तो उस्मान शेख की बहन फातिमाशेख को प्रथम मुस्लिम शिक्षिका होने का स्थान प्राप्त है।
         
देश की प्रथम शिक्षिका,क्रांतिज्योति राष्ट्रमाता सावित्रीबाईफुले (03जनवरी1831-10 मार्च1897) की जयंती के पावन अवसर पर सभी मूलनिवासियों को हार्दिक बधाई एवं मंगलकामनाएं। देश की पहली महिला शिक्षिका व नारी मुक्ति आंदोलन की पहली नेता एक ऐसी महिला जिन्होंने उन्नीसवीं सदी में छुआ-छूत,सतीप्रथा,बाल-विवाह, तथा विधवा-विवाह निषेध जैसी कुरीतियां के विरूद्ध अपने पति राष्ट्रपिता ज्योतिबा फुले के साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम किया। ऐसी देश की पहली महिला शिक्षिका को हमारा शत-नमन...
      
सावित्रीबाई फुले देश की पहली महिला अध्यापिका व नारी मुक्ति आंदोलन की पहली नेता थीं, जिन्होंने अपने पति राष्ट्रपिता ज्योतिराव फुले के सहयोग से देश में महिला शिक्षा की नींव रखी। सावित्रीबाई फुले एक मूलनिवासी बहुजन परिवार में जन्मी महिला थीं, लेकिन उन्होंने उन्नीसवीं सदी में महिला शिक्षा की शुरुआत के रूप में ब्राह्मणवाद के वर्चस्व को सीधी चुनौती देने का काम किया था। उन्नीसवीं सदी में छुआ-छूत, सतीप्रथा, बाल-विवाह, तथा विधवा-विवाह निषेध जैसी कुरीतियां बुरी तरह से व्याप्त थीं। उक्त सामाजिक बुराईयां किसी प्रदेश विशेष में ही सीमित न होकर संपूर्ण भारत में फैल चुकी थीं। महाराष्ट्र के महान समाज सुधारक, विधवा पुनर्विवाह आंदोलन के तथा स्त्री शिक्षा और समानता के अगुआ राष्ट्रपिता ज्योतिबा फुले की धर्मपत्नी सावित्रीबाई ने अपने पति के सामजिक कार्यों में न केवल हाथ बंटाया बल्कि अनेक बार उनका मार्ग-दर्शन भी किया लेकिन भारत के इतिहास फुले दंपति के कामों का सही लेखा-जोखा नहीं किया गया। भारत के पुरूष प्रधान समाज ने शुरु से ही इस तथ्य को स्वीकार नहीं किया कि नारी भी मानव है और पुरुष के समान उसमें भी बुद्धि है एवं उसका भी अपना कोई स्वतंत्र व्यक्तित्व है। उन्नीसवीं सदी में भी नारी गुलाम रहकर सामाजिक व्यवस्था की चक्की में ही पिसती रही। अज्ञानता के अंधकार, कर्मकांड, वर्णभेद, जात-पात, बाल-विवाह, मुंडन तथा सतीप्रथा आदि कुप्रथाओं से सम्पूर्ण नारी जाति ही व्यथित थी। ब्राह्मण व धर्मगुरू यही कहते थे, कि नारी पिता, भाई, पति व बेटे के सहारे बिना जी नहीं सकती। मनुस्मृति ने तो मानो नारी जाति के आस्तित्व को ही नष्ट कर दिया था। मनु ने देववाणी के रूप में नारी को पुरूष की कामवासना पूर्ति का एक साधन मात्र बताकर पूरी नारी जाति के सम्मान का हनन करने का ही काम किया। हिंदू-धर्म में नारी की जितनी अवहेलना हुई उतनी कहीं नहीं हुई। हिंदू शास्त्रों के अनुसार नारी और शुद्र को विद्या का अधिकार नहीं था और कहा जाता था कि अगर नारी को शिक्षा मिल जायेगी तो वह पर चलेगी,जिससे घर का सुख-चैन नष्ट हो जायेगा। ब्राह्मण समाज व तथाकथित अन्य उच्चकुलीन समाज में सतीप्रथा से जुड़े ऐसे कई उदाहरण हैं, जिनमें अपनी जान बचाने के लिये सती की जाने वाली स्त्री अगर आग के बाहर कूदी तो निर्दयता से उसे उठा कर वापिस अग्नि के हवाले कर दिया जाता था। अंततः अंग्रेज़ों द्वारा सतीप्रथा पर रोक लगाई गई। इसी तरह से ब्राह्मण समाज में बाल-विधवाओं के सिर मुंडवा दिये जाते थे और अपने ही रिश्तेदारों की वासना की शिकार स्त्री के गर्भवती होने पर उसे आत्महत्या तक करने के लिये मजबूर किया जाता था। उसी समय राष्ट्रपिता फुले एवं माता सावित्रीबाई फुले ने समाज की रूढ़ीवादी परम्पराओं से लोहा लेते हुये कन्या विद्यालय खोले।
      
इन्ही विषम परिस्थितियों मे सावित्रीबाई का जन्म महाराष्ट्र के सतारा जिले में नायगांव नामक छोटे से गॉव में हुआ। इनके पिता का नाम खंडोजी नावसे पाटिल और माँ का नाम लक्ष्मीबाई था। 1840 में 9 वर्ष की अवस्था में उनका विवाह पूना के 11 अप्रैल 1827 को जन्मे ज्योतिबा फुले के साथ हुआ। इसके बाद सावित्री बाई का जीवन परिवर्तन आरंभ हो गया। वह समय शूद्र, अति शूद्र और स्त्रियों के लिए नैराश्य और अंधकार का समय था। समाज में अनेक कुरीतियाँ फैली हुई थीं और नारी शिक्षा का प्रचलन नहीं था। विवाह के समय तक सावित्री बाई फुले की स्कूली शिक्षा नहीं हुई थी और ज्योतिबा फुले सातवीं कक्षा तक पढ़े थे लेकिन उनके मन में सामाजिक परिवर्तन की तीव्र इच्छा थी। इसलिये इस दिशा में समाज सेवा का जो पहला काम उन्होंने प्रारंभ किया, वह था अपनी पत्नी सावित्रीबाई को शिक्षित करना। सावित्रीबाई की भी बचपन से शिक्षा में रुचि थी और उनकी ग्राह्य शक्ति तेज़ थी। भारत में नारी शिक्षा के लिये किये गये पहले प्रयास के रूप में राष्ट्रपिता फुले ने अपने खेत में आम के वृक्ष के नीचे विद्यालय शुरु किया। यही स्त्री शिक्षा की सबसे पहली प्रयोगशाला भी थी,जिसमें सगुणाबाई व सावित्री बाई विद्यार्थी थीं,सगुनाबाई ज्योतिराव की बाल विधवा मौसी थीं। उन्होंने खेत की मिटटी में टहनियों की कलम बनाकर शिक्षा लेना प्रारंभ किया। सावित्रीबाई ने देश की पहली भारतीय महिला-अध्यापिका बनने का ऐतिहासिक गौरव हासिल किया। सावित्री-ज्योतिराव दम्पति ने 01 जनवरी 1848 को पूना के बुधवारा पेठ में पहला बालिका विद्यालय खोला। यह स्कूल एक मराठी सज्जन भिंडे के घर में खोला गया था। सावित्रीबाई फुले इस स्कूल का प्रधानाध्यापिका बनीं। धर्म-पंडितों ने उन्हें अश्लील गालियां दी, धर्म डुबोने वाली कहा तथा कई लांछन लगाये, यहां तक कि उनपर पत्थर एवं गोबर तक फेंका गया। भारत में ज्योतिराव तथा सावित्री बाई ने शुद्र,अति शुद्र (मूलनिवासी बहुजन) एवं स्त्री शिक्षा का आंरभ करके नये युग की नींव रखी। इसी वर्ष उस्मान शेख के बाड़े में प्रौढ़-शिक्षा के लिए एक दूसरा स्कूल खोला गया। इसमें उस्मान शेख ने अपनी बहन फातिमा शेख को पढ़ाया जिन्हें भारत की प्रथम मुस्लिम शिक्षिका का गौरव प्राप्त हुआ। दोनों संस्थाएँ अच्छी चल निकलीं। दबी-पिछड़ी जातियों के बच्चे, विशेषरूप से लड़कियाँ बड़ी संख्या में इन पाठशालाओं में आने लगीं। इससे उत्साहित होकर देख ज्योतिबा दम्पति ने अगले 4 वर्षों में ऐसे ही 18 स्कूल विभिन्न स्थानों में खोले। सावित्री-ज्योतिराव दम्पति ने अब अपना ध्यान बाल-विधवा और बाल-हत्या पर केन्द्रित किया. उन्होंने विधवा विवाह की परंपरा प्रारंभ की और 29 जून 1853 में बाल-हत्या प्रतिबंधक-गृह की स्थापना की. इसमें विधवाएँ अपने बच्चों को जन्म दे सकती थी और यदि शिशु को अपने साथ न रख सकें तो उन्हें यहीं छोड़कर भी जा सकती थीं। इस अनाथालय की सम्पूर्ण व्यवस्था सावित्रीबाई फुले सम्भालती थी और बच्चों का पालन पोषण माँ की तरह करती थीं। ज्योतिबा-दम्पति संतानहीन थे। उन्होंने 1874 में काशीबाई नामक एक विधवा ब्राहमणी के नाजायज बच्चे को गोद लिया। यशवंतराव फुले नाम से यह बच्चा पढ़लिखकर डाक्टर बना और आगे चलकर फुले दम्पति का वारिस भी। उनका ध्यान खेत-खलिहानों में काम करने वाले अशिक्षित मजदूरों की ओर भी गया। 1855 में ऐसे मजदूरों के लिए फुले दंपत्ति ने रात्रि-पाठशाला खोली. उस समय अस्पृश्य जातियों के लोग सार्वजानिक कुएँ से पानी नहीं भर सकते थे 1868 में अतः उनके लिये फुले दंपत्ति ने अपने घर का कुआँ खोल दिया। सन 1976-77 में पूना नगर आकाल की चपेट में आ गया। उस समय सावित्री बाई और ज्योतिबा दम्पति ने 52 विभिन्न स्थानों पर अन्न-छात्रावास खोले और गरीब जरूरतमंद लोगों के लिये मुफ्त भोजन की व्यवस्था की। ज्योतिबा ने स्त्री समानता को प्रतिष्ठित करने वाली नई विवाह विधि की रचना की। उन्होंने नये मंगलाष्टक (विवाह के अवसर पर पढ़े जाने वाले मंत्रा) तैयार किए। वे चाहते थे कि विवाह विधि में पुरुष प्रधान संस्कृति के समर्थक और स्त्री की गुलामगिरी सिद्ध करने वाले जितने मंत्र हैं, वे सारे निकाल दिए जाएँ। उनके स्थान पर ऐसे मंत्र हों जिन्हें वर-वधू आसानी से समझ सकें। ज्योतिबा के मंगलाष्टकों में वधू वर से कहती है -‘‘स्वतंत्रता का अनुभव हम स्त्रियों को है ही नहीं। इस बात की आज शपथ लो कि स्त्री को उसका अधिकार दोगे और उसे अपनी स्वतंत्रता का अनुभव करने दोगे।’’ यह आकांक्षा सिर्फ वधू की ही नहीं, गुलामी से मुक्ति चाहने वाली हर स्त्री की थी। कहते हैं - एक और एक मिलकर ग्यारह होते हैं। ज्योतिराव फुले और सावित्रीबाई फुले ने हर स्तर पर कंधे से कंधा मिलाकर काम किया और कुरीतियों, अंध श्रद्धा और पारम्पारिक अनीतिपूर्ण रूढ़ियों को ध्वस्त कर गरीबों - शोषितों के हक में खड़े हुए। 1840 से 1890 तक पचास वर्षो तक ज्योतिराव और सावित्रीबाई ने एक प्राण होकर समाज सुधार के अनेक कामों को पूरा किया।
      
28 नवंबर 1890 को ज्योतिराव फुले के परिनिर्वाण के बाद सावित्रीबाई ने बड़ी मजबूती से इस आन्दोलन की जिम्मेदारी सम्भाली और सासवड, महाराष्ट्र के सत्य-शोधक समाज के अधिवेशन में ऐसा भाषण दिया जिसने दबे-पिछड़े लोगों में आत्म-सम्मान की भावना भरी, उनका दिया हुआ यह भाषण उनके प्रखर क्रन्तिकारी और विचार-प्रवर्तक होने का परिचय देता है। 1897 में जब पूना में प्लेग फैला तब वे अपने पुत्र के साथ लोगों की सेवा में जुट गई. सावित्रीबाई की आयु उस समय 66 वर्ष की हो गई थी फिर भी वे निरंतर श्रम करते हुए तन-मन से लोगों की सेवा में लगी रही। इस कठिन श्रम के समय उन्हें भी प्लेग ने धर दबोचा और 10 मार्च 1897 को उनका परिनिर्वाण हो गया। उन्हें सम्मान देते हुए 10 मार्च 1998 को भारत सरकार द्वारा एक डाक टिकट का प्रकाशन किया गया।